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इमाम हुसैन का भारतप्रेम


यह एक सर्वमान्य सत्य है कि इतिहास को दोहराया नहीं जा सकता है और न बदलाया जा सकता है ,क्योंकि इतिहास कि घटनाएँ सदा के लिए अमिट हो जाती है .लेकिन यह भी सत्य है कि विज्ञान कि तरह इतिहास भी एक शोध का विषय होता है .क्योंकि इतिहास के पन्नों में कई ऐसे तथ्य दबे रह जाते हैं ,जिनके बारे में काफी समय के बाद पता चलता है .ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना हजरत इमाम हुसैन के बारे में है वैसे तो सब जानते हैं कि इमाम हुसैन मुहम्मद साहिब के छोटे नवासे ,हहरत अली और फातिमा के पुत्र थे .और किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं ,उनकी शहादत के बारे में हजारों किताबें मिल जाएँगी .काफी समय से मेरे एक प्रिय मुस्लिम मित्र हजरत इमाम के बारे में कुछ लिखने का आग्रह कर रहे थे ,तभी मुझे अपने निजी पुस्तक संग्रह में एक उर्दू पुस्तक “हमारे हैं हुसैन “ की याद आगई ,जो सन 1960 यानि मुहर्रम 1381 हि० को इमामिया मिशन लखनौउसे प्रकाशित हुई थी .इसकी प्रकाशन संख्या 351 और लेखक “सय्यद इब्न हुसैन नकवी ” है .इसी पुस्तक के पेज 11 से 13 तक से कुछ अंश लेकर ,उर्दू से नकवी जी के शब्दों को ज्यों का त्यों दिया जा रहा , जिस से पता चलता है कि इमाम हुसैन ने भारत आने क़ी इच्छा प्रकट क़ी थी (.फिर इसके कारण संक्षिप्त में और सबूत के लिए उपलब्ध साइटों के लिंक भी दिए जा रहे हैं .)
 1-इमाम क़ी भारत आने क़ी इच्छा 
नकवी जी ने लिखा है “हजरत इमाम हुसैन दुनियाए इंसानियत में मुहसिने आजम हैं,उन्होंने तेरह सौ साल पहले अपनी खुश्क जुबान से ,जो तिन रोज से बगैर पानी में तड़प रही थी ,अपने पुर नूर दहन से से इब्ने साद से कहा था “अगर तू मेरे दीगर शरायत को तस्लीम न करे तो , कम अज कम मुझे इस बात की इजाजत दे दे ,कि मैं ईराक छोड़कर हिंदुस्तान चला जाऊं”
नकवी आगे लिखते हैं ,”अब यह बात कहने कि जरुरत नहीं है कि ,जिस वक्त इमाम हुसैन ने हिंदुस्तान तशरीफ लाने की तमन्ना का इजहार किया था ,उस वक्त न तो हिंदुस्तान में कोई मस्जिद थी ,और न हिंदुस्तान में मुसलमान आबाद थे .गौर करने की बात यह है कि,इमाम हुसैन को हिंदुस्तान की हवाओं में मुहब्बत की कौन सी खुशबु महसूस हुई थी ,कि उन्होंने यह नहीं कहा कि मुझे चीन जाने दो ,या मुझे ईरान कि तरफ कूच करने दो ..उन्होंने खुसूसियत से सिर्फ हिंदुस्तान कोही याद किया था 
गालिबन यह माना जाता है कि हजरत इमाम हुसैन के बारे में हिन्दुस्तान में खबर देने वाला शाह तैमुर था .लेकिन तारीख से इंकार करना नामुमकिन है .इसलिए कहना ही पड़ता है कि इस से बहुत पहले ही ” हुसैनी ब्राह्मण “इमाम हुसैन के मसायब बयाँ करके रोया करते थे .और आज भी हिंदुस्तान में उनकी कोई कमी नहीं है .यही नहीं जयपुर के कुतुबखाने में वह ख़त भी मौजूद है जो ,जैनुल अबिदीन कि तरफ से हिन्दुतान रवाना किया गया था .
इमाम हुसैन ने जैसा कहा था कि ,मुझे हिंदुस्तान जाने दो ,अगर वह भारत की जमीन पर तशरीफ ले आते तो ,हम कह नहीं सकते कि उस वक्त कि हिन्दू कौम उनकी क्या खिदमत करती”
2-इमाम हुसैन की भारत में रिश्तेदारी 
इस्लाम से काफी पहले से ही भारत ,इरान ,और अरब में व्यापार होता रहता था .इस्लाम के आने से ठीक पहले इरान में सासानी खानदान के 29 वें और अंतिम आर्य सम्राट “यज्देगर्द (590 ई ) की हुकूमत थी .उस समय ईरान के लोग भारत की तरह अग्नि में यज्ञ करते थे .इसी लिए “यज्देगर्द” को संस्कृत में यज्ञ कर्ता भी कहते थे .
प्रसिद्ध इतिहासकार राज कुमार अस्थाना ने अपने शोधग्रंथ “Ancient India ” में लिखा है कि सम्राट यज्देगर्द की तीन पुत्रियाँ थी ,जिनके नाम मेहर बानो , शेहर बानो , और किश्वर बानो थे .यज्देगर्द ने अपनी बड़ी पुत्री की शादी भारत के राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय से करावा दी थी .जिसकी राजधानी उज्जैन थी ..और राजा के सेनापति का नाम भूरिया दत्त था .जिसका एक भाई रिखब दत्त व्यापर करता था . .यह लोग कृपा चार्य के वंशज कहाए जाते हैं .चन्द्रगुप्त ने मेहर बानो का नाम चंद्रलेखा रख दिया था .क्योंकि मेहर का अर्थ चन्द्रमा होता है ..राजाके मेहर बानो से एक पुत्र समुद्रगुप्त पैदा हुआ .यह सारी घटनाएँ छटवीं शताब्दी की हैं
. यज्देगर्द ने दूसरी पुत्री शेहर बानो की शादी इमाम हुसैन से करवाई थी . और उस से जो पुत्र हुआ था उसका नाम “जैनुल आबिदीन “ रखा गया .इस तरह समुद्रगुप्त और जैनुल अबिदीन मौसेरे भाई थे .इस बात की पुष्टि “अब्दुल लतीफ़ बगदादी (1162 -1231 ) ने अपनी किताब “तुहफतुल अलबाब ” में भी की है .और जिसका हवाला शिशिर कुमार मित्र ने अपनी किताब “Vision of India ” में भी किया है .
3-अत्याचारी यजीद का राज 
इमाम हुसैन के पिता हजरत अली चौथे खलीफा थे . और उस समय वह इराक के शहर कूफा में रहते थे . हजरत prm अली सभी प्रकार के लोगों से प्रेमपूर्वक वर्ताव करते थे . उन के कल में कुछ हिन्दू भी वहां रहते थे .लेकिन किसी पर भी इस्लाम कबूल करने पर दबाव नहीं डाला जाता था .ऐसा एक परिवार रिखब दत्त का था जो इराक के एक छोटे से गाँव में रहता था ,जिसे अल हिंदिया कहा जाता है . जब सन 681 में हजरत अली का निधन हो गया तो , मुआविया बिन अबू सुफ़यान खलीफा बना . वह बहुत कम समय तक रहा .फउसके बाद उसका लड़का यजीद सन 682 में खलीफा बन गया . यजीद एक अय्याश , अत्याचारी . व्यक्ति था .वह सारी सत्ता अपने हाथों में रखना चाहता था .इसलिए उसने सूबों के सभी अधिकारीयों को पत्र भेजा और उनसे अपने समर्थन में बैयत ( oth of allegience ) देने पर दबाव दिया .कुछ लोगों ने डर या लालच के कारण यजीद का समर्थन कर दिया . लेकिन इमाम हुसैन ने बैयत करने से साफ मना कर दिया .यजीद को आशंका थी कि यदि इमाम हुसैन भी बैयत नहीं करेंगे तो उसके लोग भी इमाम के पक्ष में हो जायेंगे .यजीद तो युद्ध कि तय्यारी करके बैठा था .लेकिन इमाम हुसैन युद्ध को टालना चाहते थे ,यह हालत देखकर शहर बानो ने अपने पुत्र जैनुल अबिदीन के नाम से एक पत्र उज्जैन के राजा चन्द्रगुप्त को भिजवा दिया था .जो आज भी जयपुर महाराजा के संग्राहलय में मौजूद है .बरसों तक यह पत्र ऐसे ही दबा रहा ,फिर एक अंगरेज अफसर Sir Thomas Durebrught ने 26 फरवरी 1809 को इसे खोज लिया और पढ़वाया ,और राजा को दिया , जब यह पत्र सन 1813 में प्रकाशित हुआ तो सबको पता चल गया . 
उस समय उज्जैन के राजा ने करीब 5000 सैनिकों के साथ अपने सेनापति भूरिया दत्त को मदीना कि तरफ रवाना कर दिया था .लेकिन इमाम हसन तब तक अपने परिवार के 72 लोगों के साथ कूफा कि तरफ निकल चुके थे ,जैनुल अबिदीन उस समय काफी बीमार था ,इसलिए उसे एक गुलाम के पास देखरेख के लिए छोड़ दिया था .भूरिया दत्त ने सपने भी नहीं सोचा होगा कि इमाम हुसैन अपने साथ ऐसे लोगों को लेकर कुफा जायेंगे जिन में औरतें , बूढ़े और दुधापीते बच्चे भी होंगे .उसने यह भी नहीं सोचा होगा कि मुसलमान जिस रसूल के नाम का कलमा पढ़ते हैं उसी के नवासे को परिवार सहित निर्दयता से क़त्ल कर देंगे .और यजीद इतना नीच काम करेगा . वह तो युद्ध की योजना बनाकर आया था . तभी रस्ते में ही खबर मिली कि इमाम हुसैन का क़त्ल हो गया . यह घटना 10 अक्टूबर 680 यानि 10 मुहर्रम 61 हिजरी की है .यह हृदय विदारक खबर पता चलते ही वहां के सभी हिन्दू( जिनको आजकल हुसैनी ब्राहमण कहते है ) मुख़्तार सकफी के साथ इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने को युद्ध में शामिल हो गए थे .इस घटना के बारे में “हकीम महमूद गिलानी” ने अपनी पुस्तक “आलिया ” में विस्तार से लिखा है 
4-रिखब दत्त का महान बलिदान 
कर्बला की घटना को युद्ध कहना ठीक नहीं होगा ,एक तरफ तिन दिनों के प्यासे इमाम हुसैन के साथी और दूसरी तरफ हजारों की फ़ौज थी ,जिसने क्रूरता और अत्याचार की सभी सीमाएं पर कर दी थीं ,यहाँ तक इमाम हुसैन का छोटा बच्चा जो प्यास के मारे तड़प रहा था , जब उसको पानी पिलाने इमाम नदी के पास गए तो हुरामुला नामके सैनिक ने उस बच्चे अली असगर के गले पर ऐसा तीर मारा जो गले के पार हो गया . इसी तरह एक एक करके इमाम के साथी शहीद होते गए .
और अंत में शिम्र नामके व्यक्ति ने इमाम हुसैन का सी काट कर उनको शहीद कर दिया , शिम्र बनू उमैय्या का कमांडर था . उसका पूरा नाम “Shimr Ibn Thil-Jawshan Ibn Rabiah Al Kalbi (also called Al Kilabi (Arabic: شمر بن ذي الجوشن بن ربيعة الكلبي) था. यजीद के सैनिक इमाम हुसैन के शरीर को मैदान में छोड़कर चले गए थे .तब रिखब दत्त ने इमाम के शीश को अपने पास छुपा लिया था .यूरोपी इतिहासकार रिखब दत्त के पुत्रों के नाम इसप्रकार बताते हैं ,1सहस राय ,2हर जस राय 3,शेर राय ,4राम सिंह ,5राय पुन ,6गभरा और7 पुन्ना .बाद में जब यजीद को पता चला तो उसके लोग इमाम हुसैन का सर खोजने लगे कि यजीद को दिखा कर इनाम हासिल कर सकें . जब रिखब दत्त ने शीश का पता नहीं दिया तो यजीद के सैनिक एक एक करके रिखब दत्त के पुत्रों से सर काटने लगे ,फिर भी रिखब दत्त ने पता नहीं दिया .सिर्फ एक लड़का बच पाया था . जब बाद में मुख़्तार ने इमाम के क़त्ल का बदला ले लिया था तब विधि पूर्वक इमाम के सर को दफनाया गया था .यह पूरी घटना पहली बार कानपुर में छपी थी .story had first appeared in a journal (Annual Hussein Report, 1989) printed from Kanpur (UP) .The article ”Grandson of Prophet Mohammed (PBUH

रिखब दत्त के इस बलिदान के कारण उसे सुल्तान की उपाधि दी गयी थी .और उसके बारे में “जंग नामा इमाम हुसैन ” के पेज 122 में यह लिखा हुआ है ,”वाह दत्त सुल्तान ,हिन्दू का धर्म मुसलमान का इमान,आज भी रिखब दत्त के वंशज भारत के अलावा इराक और कुवैत में भी रहते हैं ,और इराक में जिस जगह यह लोग रहते है उस जगह को आज भी हिंदिया कहते हैं यह विकी पीडिया से साबित है 
Al-Hindiya or Hindiya (Arabic: الهندية‎) is a city in Iraq on the Euphrates River. Nouri al Maliki went to school there in his younger days. Al-Hindiya is located in the Kerbala Governorate. The city used to be known as Tuwairij (Arabic: طويريج‎), which gives name to the “Tuwairij run” (Arabic: ركضة طويريج‎) that takes place here every year as part of the Mourning of Muharram on the Day of Ashura.
http://en.wikipedia.org/wiki/Hindiya

तबसे आजतक यह हुसैनी ब्राह्मण इमाम हुसैन के दुखों को याद करके मातम मनाते हैं .लोग कहते हैं कि इनके गलों में कटने का कुदरती निशान होता है .यही उनकी निशानी है .
5-सारांश और अभिप्राय 
यद्यपि मैं इतिहास का विद्वान् नहीं हूँ ,और इमाम हुसैन और उनकी शहादत के बारे में हजारों किताबे लिखी जा सकती हैं ,चूँकि मुझे इस विषय पर लिखने का आग्रह मेरे एक दोस्त ने किया था ,इसलिए उपलब्ध सामग्री से संक्षिप्त में एक लेख बना दिया था , मेरा उदेश्य उन कट्टर लोगों को समझाने का है ,कि जब इमाम हुसैन कि नजर में भारत एक शांतिप्रिय देश है ,तो यहाँ आतंक फैलाकर इमाम की आत्मा को कष्ट क्यों दे रहे हैं .भारत के लोग सदा से ही अन्याय और हिंसा के विरोधी और सत्य के समर्थक रहे हैं .इसी लिए अजमेर की दरगाह के दरवाजे पार लिखा है ,
“शाहास्त हुसैन बदशाहस्त हुसैन ,दीनस्त हुसैन दीं पनाहस्त हुसैन 
सर दाद नादाद दस्त दर दस्ते यजीद ,हक्का कि बिनाये ला इलाहस्त हुसैन “
इतिहास गवाह है कि अत्याचार से सत्य का मुंह बंद नहीं हो सकता है ,वह दोगुनी ताकत से प्रकट हो जाता है ,जैसे कि ,
” कत्ले हुसैन असल में मर्गे यजीद है “
6-संदर्भित किताबें और साइटें
अपने लेख को प्रमाणित करने के लिए यह सूचि दी जा रही है , ताकि लोग भी विस्तार से जान सकें और सच्चाई को स्वीकार करें
1-Brahmis followers of Imaam  Hussain
http://www.milligazette.com/Archives/2004/16-31May04-Print-Edition/1605200441.htm

2-Brahmins Fought for Imam Hussain in the Battle of Karbala

http://smma59.wordpress.com/2007/09/19/brahmins-fought-for-imam-hussain-in-the-battle-of-karbala/


3-The Hindu Devotees of Imam Hussain (A.S.)
http://smma59.wordpress.com/2006/09/05/the-hindu-devotees-of-imam-hussain-as-2/
4-Relation of Imam Hussain with Indiaહજરત ઇમામ હુસેનના ભારત સાથેના સંબંધો
http://hi.shvoong.com/humanities/religion-studies/1909198-relation-imam-hussain-india/
5-The Story of Imam Hussein
http://hammorabi.blogspot.com/Imam%20Hussein/Imam%20Hussein.html
6-Relationship  of Imam Husain  with India 
http://www.balawaristan.net/Documents/relationship-of-different-religions.html
7-Azadaar e Husain

http://alqaim.info/?p=1417


8-Hindus in Iraq

http://www.qatarliving.com/node/12239
9-Mohyal history
http://www.mohyal.com/index.php/general-mohyal-sabha/mohyal-history
10-Hussaini Brahmin 
http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2008-01-21/patna/27750686_1_muharram-procession-hazrat-imam-hussain-month-of-islamic-calendar
11-JANG NAMA IMAM HUSSAIN
جنگ نامہ امام حسین
Auther Name : Dr.Qureshi Ahmed Hussain Ailadri
First Edition : 2001-Rs.150.00
http://www.punjabiadbiboard.com/index.php?main_page=product_info&cPath=5&products_id=26

मुझे पूरा विश्वास है कि इतने सबूतों के देखने के बाद लोग हिंसा का रास्ता छोडके मानवता और इमाम हुसैन के प्रिय भारत देश की सेवा जरुर करेंगे 

http://www.shiaforums.com/vb/f25/hindu-followers-muslim-imam-imam-hussain-s-9251/

शहादत इमाम हुसैन मानव इतिहास की बहुत बड़ी त्रासदी

प्रोफेसर अख्तरुल वासे
22 नवंबर, 2012
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
मोहर्रम का महीना इस्लामी महीनों में कई मायनों में बहुत अहम है। इतिहास की बहुत सी अहम घटनाएं इसी महीने में हुई हैं। लेकिन दो घटनाएं ऐसी हैं जो इस महीने के विचार से बुनियादी स्तर पर जुड़ी हैं: लोग रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के मदीना हिजरत और रसूलुल्लाह के दूसरे नवासे हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की कर्बला में शहादत। हिजरत की घटना भी दुश्मनों से इस्लाम की रक्षा के लिए सामने आयी और कर्बला की घटना भी इस्लाम और इस्लामी व्यवस्था के कमज़ोर होने को जीवंत करने के लिए सच का साथ देने वालों के द्वारा उठाये गये क़दम के नतीजे में सामने आयी, इस प्रकार इन दोनों घटनाएं तर्क संगत पाई जाती हैं।
कर्बला की घटना न केवल इस्लामी बल्कि मानव इतिहास की एक बहुत बड़ी त्रासदी है। यही वजह है कि आज लगभग चौदह सौ साल गुज़रने के बावजूद ये घटना लोगों के मन में इस तरह ताज़ा है जैसे ये बस कल की बात है। मानव इतिहास की बहुत सी ऐसे घटनाएं हैं जो इंसानो के अक़्ल और ज़मीर को झिंझोड़  कर रख दिया। जो उसकी याददाश्त के अनमोल और अमिट हिस्सा बनकर रह गए। हजरत हुसैन बिन अली रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की ये घटना ऐसा ही है। ऐसी घटनाएं चाहे कितने ही दर्दनाक और दिल को दुखाने वाले ही क्यों न हों लेकिन वास्तविकता ये है कि वो ब्रह्मांड में खुदा की जारी सुन्नत और फितरत (प्रकृति) के तकाज़े के बिल्कुल मुताबिक होते हैं। अल्लाह की बनाई हुई प्राकृतिक व्यवस्था ये है कि जब भी उसके दीन को कोई खतरा होता है, अल्लाह किसी महान और पवित्र बंदे को दीन के मजबूत क़िले की सुरक्षा के लिए भेज देता है और उसके द्वारा उसकी रक्षा का काम अंजाम देता है।
एक हदीस में जो सुनन अबु दाऊद में शामिल है, बताया गया है कि अल्लाह ताला हर सदी के सिरे पर धर्म को अद्यतन करने और उसकी रक्षा के लिए किसी महान व्यक्ति को चुनता है। ये सिलसिला क़यामत तक बाक़ी रहेगा। हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की गिनती इस्लाम धर्म की उन कुछ महान हस्तियों में होता है जिन्होंने अपने खून से इस्लाम के पौधे को सींचा और उसकी रक्षा  करने को अपना पहला कर्तव्य माना और हक़ीकत ये है कि क़यामत तक के लिए इस्लाम के किले की रक्षा के लिए अपनी जान को न्योछावर कर डालने की एक बेनज़ीर परंपरा स्थापित की।
हक़ीकत ये है कि दुनिया की कोई ऐसी क़ौम नहीं है जिसने इस घटना से प्रेरणा और आध्यात्मिक सीख न हासिल की हो और उसके विचारों और दृष्टिकोणों पर इसका कोई असर न पड़ा हो। महात्मा गांधी कहते हैं किः मैंने इस्लाम के शहीदे आज़म इमाम हुसैन के जीवन का अध्ययन किया है और कर्बला की घटनाओं पर मैंने विचार किया है। इन घटनाओं को पढ़कर मुझे ये स्पष्ट हुआ कि अगर हिंदुस्तान अज़ादी चाहता है तो उसे हज़रत हुसैन की शैली और चरित्र का पालन करना पड़ेगा।”

 
इस्लामी इतिहास में इस बात पर विद्वान लोग सहमत हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के नवासे की इस शहादत ने इस्लाम की रगों में ताज़ा खून को दौड़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चारों खलीफा के समय के बाद इस्लामी राजनीतिक व्यवस्था जिस फसाद और बिगाड़ का शिकार हुआ। इस्लाम की सामूहिक व राजनीतिक आत्मा इस फसाद से हमेशा परहेज़ करती रही है। लेकिन इतिहास गवाह है कि सत्तावादी होने मिजाज़ किसी भी सिद्धांत और विचारधारा का पाबंद नहीं होता। इस सत्ता और शक्ति की चाहत ने जब इस बात की कोशिश की कि इस्लामी सिद्धांतों की अपनी मनमानी व्याख्या करे, इस्लामी व्यवस्था को उसके असल रुख से मोड़ दे तो हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू ने उम्मत की तरफ से अपना कर्तव्य समझकर इस व्यवस्था की रक्षा में अपनी कीमती जान कुर्बान कर दी। इस तरह शहादत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू सत्य के लिए आखरी हद तक खुद को लुटा देने और न्योछावर कर देने के ऐतिहासिक प्रतीक बन गये। उम्मत का शहीदे आज़म इस बात में यक़ीन रखता है कि हुसैन का क़त्ल वास्तव में यज़ीद की ही मौत है और ये कि इस्लाम की ज़िंदगी कर्बला जैसी घटनाओं में ही छिपी हैः
क़त्ल हुसैन असल में मरगे यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद
इसलिए हुसैनी रूह और जज़्बा, उम्मत में हमेशा बरकरार रहा। जब भी इस्लाम के कलमे को ऊंचा करने और सबसे बड़े जिहाद (सबसे बड़ा जिहाद ज़ालिम शासक के सामने कलमए हक़ को बुलंद करना है) के तहत वक़्त की जाबिर ताक़तों के खिलाफ मुकाबला करने की ज़रूरत आई, हुसैनी जज़्बे से भरपूर उम्मत की रक्षा करने वालों ने कभी इससे पीछे नहीं हटे। इसी शहादत की भावना की विरासत को संभाले हुए फ़िलिस्तीन के पीड़ितों ने आधी सदी से अधिक समय से अपने सीनों पर गोलियां खा रहे हैं। ज़ालिम व निर्मम यहूदी शक्तियां उनके अस्तित्व का एक एक कतरा निचोड़ लेने के लिए आमादा हैं लेकिन वो अपना सिर झुकाने और मैदान से पीछे हट जाने के लिए तैयार नहीं हैं। अभी पिछले दिनों आलम अरब दुनिया में जो महान क्रांति हुई और जिसने तानाशाहों की सरकारों के तख्ते पलट दिए और शोषण करने वालों और निरंकुशों के बीच बिखराव पैदा कर दिया, जिसकी गूंज और धमक विभिन्न देशों में अब भी सुनाई दे रही थी, निस्संदेह इस के पीछे यही हुसैनी भावना काम कर रही है। इस समय इस बात की भी कोशिश हो रही है कि कर्बला में हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत को नये अर्थ दिये जायें और इसे ऐसे ऐसे अर्थ पहनाए जायें जिससे इस महान घटना के असल महत्व और उपादेयता बाक़ी न रहे। ये निस्संदेह अस्लाफ इकराम के नज़रिए और मसलक और उम्मत की सामूहिक अंतरात्मा से संघर्षरत है। उसे कभी भी उम्मेत का शहीदे आज़म कुबूल और बर्दाश्त नहीं कर सकता। शहादत इमाम हुसैन के सम्बंध में किसी बहस की नई बिसात बिछाने की जरूरत महसूस नहीं होती। बल्कि मेरी नज़र में ये बिल्कुल बकवास है। अलबत्ता, अल्लामा इब्ने तैमिया ने अपने फतवा में हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत पर जो कुछ लिखा है वो यहाँ पेश कर देना मुनासिब होगा:
” जिन लोगों ने हज़रत हुसैन का क़त्ल किया या उसका समर्थन किया या उससे सहमत हुआ, उस पर अल्लाह की, मलाइका की और तमाम लोगों की लानत, अल्लाह ताला ने हज़रत हुसैन को इस दिन (यौमे आशूरा) शहादत से सरफ़राज़ किया और इसके ज़रिए उन लोगों को जिन्होंने उन्हें क़त्ल किया था या उनके क़त्ल में मदद की थी या इससे सहमत हुए थे, उन्हें इसके ज़रिए ज़लील (अपमानित) किया। उनकी ये शहादत इस्लाम के पहले के शहीदों की पैरवी में थी। वो और उनके भाई जन्नत में जाने वाले नौजवानों के सरदार हैं। दरअसल हिजरत, जिहाद और सब्र का वो हिस्सा उनको नहीं मिल सका था जो उनके अहले बैत को हासिल था। इसलिए अल्लाह ने उनकी इज़्ज़त व करामत को पूरा करने के लिए उन्हें शहादत से सरफ़राज़ किया। उनका क़त्ल उम्मत के लिए एक बड़ी मुसीबत थी और अल्लाह ताला ने बताया कि मुसीबत के वक्त इन्ना लिल्लाहे वइन्ना एलैहि राजेऊन पढ़ा जाए। कुरान कहता है: सब्र करने वालों को खुश खबरी सुना दो। जब उनको कोई मुसीबत पेश आती है तो वो कहते हैं कि हम अल्लाह के लिए हैं और हमें अल्लाह की तरफ़ ही लौटना है। अल्लाह की उन पर नवाज़िशें और रहमतें हैं और यही लोग हिदायत याफ्ता हैं।” (फतावा इब्ने तैमिया जिल्द 4 , सफ्हा- 4835)
सल्फ़ सालेहीन के इससे मिलते जुलते बहुत से बयान हैं। जिनका अध्ययन इस विषय पर लिखी गई किताबों में किया जा सकता है। ये अंश इसलिए दिया गया है कि जो लोग इस दृष्टिकोण से हटकर सोचते हैं उन्हें अपने दृष्टिकोण की समीक्षा करनी चाहिए। विशेष रूप से अल्लामा इब्ने तैमिया का दृष्टिकोण ऐसे लोगों की ज़बानों को बंद कर देने के लिए काफी है।
बहरहाल इतिहास में शहादत की घटनाएं हमेशा पेश आती रही हैं और पेश आती रहेंगी, लेकिन हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की घटना के कई पहलुओं से अपने अंदाज़ में अद्वितीय घटना है। रसूलुल्लाह स.अ.व. का नवासा जिसे रसूलुल्लाह स.अ.व. की पीठ पर सवारी का सौभाग्य प्राप्त हो, जिसके होंठों को रसूलुल्लाह स.अ.व. ने चूमा हो जिसे रसूलुल्लाह स.अ.व. ने जन्नत के लोगों का सरदार ठहराया हो, उसे अहयाए (पुनर्जीवन) इस्लाम के जुर्म में बहुत बेदर्दी और सफ्फ़ाकी से क़त्ल कर दी जाए। इस अत्याचार और बर्बर व्यवहार पर ज़मीन और आस्मान जितना भी मातम करें कम है। हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की घटना को उम्मत कभी भुला नहीं सकती। वो उसके मन और आत्मा का हिस्सा बन चुका है। कर्बला की घटना अपनी सभी पीड़ाओं के साथ इस्लाम और उम्मते इस्लाम की रक्षा के लिए समर्पण और बलिदान की प्रेरणा देता रहेगा।
प्रोफेसर अख्तरुल वासे, ज़ाकिर हुसैन इंस्टीट्यूट ऑफ इस्लामिक साइंसेज़, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली, के प्रमुख हैं।
22 नवंबर, 2012,  स्रोत: इंक़लाब, नई दिल्ली
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हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय

माता पिता
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत फ़तिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा हैं। आप अपने माता पिता की द्वितीय सन्तान थे।
जन्म तिथि व जन्म स्थान
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का जन्म सन् चार (4) हिजरी क़मरी में शाबान मास की तीसरी (3) तिथि को पवित्र शहर मदीनेमें हुआ था।
नाम करण
आप के जन्म के बाद हज़रत पैगम्बर(स.) ने आपका नाम हुसैन रखा। तथा आपके माथे पर चुम्बन कर के कहा कि तेरे सम्मुख एक महान् विपत्ति है। अल्लाह तेरी हत्या करने वाले पर लानत करे।
उपाधियां
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मुख्य उपाधियां मिस्बाहुल हुदा, सैय्यिदुश शोहदा, अबु अबदुल्लाह व सफ़ीनातुन निजात है।
पालन पोषण
इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम छः वर्ष की आयु तक हज़रत पैगम्बर(स.) के साथ रहे। तथा इस समय सीमा में  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को सदाचार सिखाने ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने  का उत्तरदायित्व स्वंम पैगम्बर(स.) के ऊपर था।  पैगम्बर(स.)  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अत्यधिक प्रेम करते थे। वह उनका छोटा सा दुखः भी सहन नहीं कर पाते थे।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से प्रेम के सम्बन्ध में पैगम्बर(स.) के इस प्रसिद्ध कथन का शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों के विद्वानो ने उल्लेख किया है। कि पैगम्बर(स.) ने कहा कि हुसैन मुझसे हैऔर मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे।
हज़रत पैगम्बर(स.) के स्वर्गवास के बाद हज़रत  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम तीस (30)  वर्षों तक अपने पिता हज़रत इमामइमाम अली अलैहिस्सलाम के साथ रहे। और सम्स्त घटनाओं व विपत्तियों में अपने पिता का हर प्रकार से सहयोग करते रहे।
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद दस वर्षों तक अपने बड़े भाई इमाम हसन के साथ रहे। तथा सन् पचास (50) हिजरी में उनकी शहादत के पश्चात दस वर्षों तक घटित होने वाली घटनाओं का अवलोकन करते हुए मुआविया का विरोध करते रहे । जब सन् साठ (60) हिजरी में मुआविया का देहान्त हो गय, व उसके बेटे यज़ीद ने गद्दी पर बैठने के बाद हज़रत   इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बैअत (आधीनता स्वीकार करना) करने के लिए कहा, तो आपने बैअत करने से मना कर दिया।और इस्लामकी रक्षा हेतु वीरता पूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गये।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़ियाम व क़ियाम के उद्देश्य
हज़रत  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (किसी के विरूद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को अपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि—-
1—जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। कि मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमय जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम)  की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जारहा हूँ। तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाई की ओर बुलाना व बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर(स.) व अपने पिता इमाम अली अलैहिस्सलाम की सुन्नत(शैली) पर चलूँगा।
2—एक दूसरे अवसर पर कहा कि ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुत या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए। तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके।
3— जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तो, आपने कहा कि ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को  हक़दार के पास देखना चाहते हो तो यह कार्य अल्लसाह को प्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। ख़िलाफ़त पद के अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा हम अहलेबैत सबसे अधिक अधिकारी हैं।
4—एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक अधिकारी हैं जो शासन कर रहे है। 
  इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की और संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं——-
1-इस्लामी समाज में सुधार।
2-जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश ।
3-जनता को बुरे कार्यो के करने से रोकना।
4-हज़रत पैगम्बर(स.) और हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की सुन्नत(शैली) को किर्यान्वित करना।
5-समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।
6-अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।
यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में हो, जो इसके वास्तविक अधिकारी भी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम के परिणाम
1-बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।
2-बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खतापूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।
3-कर्बला के मैदान में  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जागृत हुई; कि हमने  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।
इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आईं एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।
इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।
अतः तव्वाबीन समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया। ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।
4- इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।
5-इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी किसी के सम्मुख अपनी मानवता को न बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।
6-समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।
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सच के लिए शहीद हो गए इमाम हुसैन

इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी वर्ष का पहला महीना है मोहर्रम। इसे इस्लामी इतिहास की सबसे दुखद घटना के लिए भी याद किया जाता है। इसी महीने में 61 हिजरी में यजीद नाम के एक आतताई ने इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम और उनके 72 अनुयाइयों का कत्ल कर दिया था। सिर्फ इसलिए क्योंकि इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम ने यजीद को खलीफा मानने से इनकार कर दिया था। इनकार इसलिए किया था, क्योंकि उनकी नजर में यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी, जबकि यजीद चाहता था कि वह खलीफा है, इसकी पुष्टि इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम करें। क्योंकि वह हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हैं और उनका वहां के लोगों पर काफी अच्छा प्रभाव है।

प्रस्तुति: मज्कूर आलम

यज़ीद के विरूद्ध हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़ियाम व उसके उद्देश्य

सन्60 हिजरी क़मरी में मुआविया के मरने के बाद उसका बेटा यज़ीद शाम के सिहासन पर बैठा और उसने स्वयं को पैग़म्बर का उत्तराधिकारी घोषित किया। सत्ता पाने के बाद उसने इस्लामी मान्याताओं को बदलने और क़ुरआन के आदेशों का विरोध करने के साथ साथ मानवता विरोधी कार्य करने भी शुरू कर दिये। इमाम हुसैन ने जब यज़ीद को इस्लाम विरोधी कार्य करते देखा तो सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (क़ियाम अर्थात किसी के विरूद्ध संघर्ष करना) किया। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को आपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि—-
1— . जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। “ मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमयी जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम) की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जा रहा हूँ तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाईयों की और बुलाना व बुराईयों से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर व अपने पिता इमाम अली की शैली पर चलूँगा। ”
2— . एक दूसरे अवसर पर कहा कि “ ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुता या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके। ”
3— . जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तो आपने कहा कि “ ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को हक़दार के पास देखना चाहते हो, तो यह कार्य अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। हम अहलेबैत ख़िलाफ़त पद के, अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा सबसे अधिक हक़दार हैं। ”
4— . एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक हक़दार हैं जो शासन कर रहे है।
. इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की और संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं——-
1- . इस्लामी समाज में सुधार।
2- . जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश।
3- . जनता को बुरे कार्यो से मना करना।
4- . आदरनीय पैगम्बर व आदरनीय अली की कार्य शैली को किर्यान्वित करना।
5- . समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।
6- . अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।
नोट–यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में हो जो कि इसके वास्तविक अधिकारी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम के परिणाम

1- . बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।
2- . बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खता पूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।
3- . कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जाग्रत हुई कि हमने इमाम हुसैन की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।
इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आयीं, एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे, उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।
इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।
अतः तव्वाबीन नामक समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।
4- . इमाम हुसैन के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए
प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।
5- . इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी न किसी के सम्मुख झुको न अपने व्यक्तित्व को बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।
6-समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।